टूटती ख्वाहिशें, बदलता इंसान ' सिकंदर, ओ सिकंदर, झांक ले, झांक ले ,झांक ले ,दिल के अंदर...'महज एक फिल्मी गाने की लाइनें नहीं है, बल्कि दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले सिकंदर को अपनी गरीबी के अंदर झांकने के लिए मजबूर करने वाले रसूखदारों का फरमान भी है। दो वक्त की रोटी का इंतजाम ना कर पाने वाला परिवार यदि किसी तरह से अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर समाज के बड़े ओहदे पर ले जाने की चाहत रखता है, तो यह समाज के तथाकथित बड़े कहे जाने वाले लोगों के लिए चिंता का विषय होना आम बात है।यह मानवीय स्वभाव भी है और आजकल के समाज में यह कह कर इसे उचित भी ठहराया जाता है कि जब किस्मत ने ही उसे गरीब बना दिया है, तो हम उसमें क्या कर सकते हैं? किसी भी ग़लत चीज पर किस्मत का ठप्पा लगाकर उसे सही ठहराना और उसे शोषण के एक हथियार के रूप में अपनाए जाने का रिवाज हमारे समाज में पुराना है। दसवीं कक्षा के छात्र विश्व विजेता सिकंदर के बारे में थोड़ा-बहुत जान ही लेते हैं और यही ज्ञान इस सिकंदर को सहपाठियों में मजाक का पात्र बना देता है। सिकंदर के