मनतंत्र type of democracy https://rroshanravi.blogspot.com/2021/05/type-of-democracy.html

                         मनतंत्र



                        प्राचीन काल का राजतंत्र आधुनिक काल में जनतंत्र के रूप में परिवर्तित हो गया। राजतंत्र में राजा का पुत्र ही राजा होता था, लेकिन जनतंत्र में राजा को जनता के बीच से ही चुना जाता है। जनतंत्र में जनता के बीच से ही राजा का चुनाव होने के कारण राजा जनता के प्रति अधिक संवेदनशील होते है और इसमें जनता के हितों का अधिकतम ख्याल रखा जाता है। बीसवीं शताब्दी तक दुनिया के लगभग सभी देशों में जनतंत्र अस्तित्व में आ गया था। इक्कीसवीं सदी जनतांत्रिक व्यवस्था के साथ अपने प्रारंभिक दौर से गुजर ही रहा था, तभी दुनिया के एक बड़े जनतंत्र के अंदर एक नया तंत्र विकसित हुआ, जिसे 'मनतंत्र' की संज्ञा दी गई। हालांकि ऐसे जनतंत्र में एक नाम मात्र का राज्यप्रमुख होता है, जबकि दूसरा वास्तविक राज्यप्रमुख होता है। राज्य का जो वास्तविक राज्यप्रमुख है उसे ही राज्य के संचालन की वास्तविक जिम्मेदारी दी गई है और राज्य संचालन के लिए उसे असीम शक्तियां और अधिकार प्रदान की गई है, लेकिन राज्य में जैसे-जैसे ‘जनतंत्र', ‘मनतंत्र’ के रूप में परिवर्तित होता गया, वैसे-वैसे राज्य संचालन का स्वरूप भी बदलता चला गया। राज्य के वास्तविक प्रमुख में प्रजा के सेवक वाली नम्रता ना होकर राजाओं वाली ठाट-बाट है, क्योंकि प्राचीन काल में भी अधिकांश राज्यों में राजकाज ‘मन की बात’ करके ही संचालित किया जाता था और जनतंत्र से ही क्रमशः विकसित हुए इस ‘मनतंत्र’ में भी ‘मन की बात’ के द्वारा ही राजकाज के संचालन की कोशिश की जा रही है, इसीलिए इस राज्य के वास्तविक प्रमुख को राजा कह कर संबोधित करना ही ज्यादा उचित जान पड़ता है।

                         दुनिया के इतिहास में यह एक ऐसा एकलौता और अनोखा तंत्र विकसित हुआ, जहां ‘जन की बात’ की बजाय, ‘मन की बात' को प्रमुखता दी गई, इसलिए बुद्धिजीवियों ने इस तंत्र का नाम ‘जनतंत्र’ की बजाय ‘मनतंत्र’ रख दिया। ‘मनतंत्र’ नाम रखने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि यहां के राजा के द्वारा ‘मन की बात’ की जाती है। ‘मन की बात’ करने के पीछे यहां का राजा यह तर्क देता है कि जब इतने बरसों से ‘जन की बात’ करने से इस राज्य का विकास नहीं हो पाया है, तो एक बार ‘मन की बात’ करके ही कोशिश कर लेते हैं। शायद ‘मन की बात’ करने से राज्य का कुछ विकास हो जाए।

                         नए प्रयोग का दौर यहीं खत्म नहीं हुआ, बल्कि ‘मन की बात’ में भी नए प्रयोग करने की कोशिश की गई। ‘मन की बात' अक्सर मन से की जाती है, लेकिन यहां के राजा के द्वारा ‘मन की बात’ भी दिमाग से की जाती है, क्योंकि अक्सर ऐसा देखा जाता है कि ‘मन की बात’ करने वाला भावुक होता है, लेकिन इस राज्य में तो ‘मन की बात’ सुनने वाला ही अत्यधिक भावुक हो जाता है। राजा के द्वारा सोच-समझकर बुद्धिमानी के साथ अपने हित के लिए कही गई ‘मन की बात’ से प्रजा का मन भावनाओं में बहकर वह सब करने के लिए तैयार हो जाता है, जो राजा करवाना चाहता है। हालांकि राजा के पास असीम शक्तियां हैं और वो प्रजा पर जबरदस्ती अपना आदेश थोप सकते हैैं, लेकिन वो प्रजा के द्वारा विद्रोह करने की आशंका के कारण ऐसा नहीं करते हैं।
                       राजा धार्मिक प्रवृत्ति का है, इसलिए उन्होंने कई पौराणिक कथाएं भी सुन रखी है। इन पौराणिक कथाओं का श्रवण करते समय ही राजा को ‘परी की जादुई छड़ी’ के चमत्कार के बारे में पता चला। ‘परी की जादुई छड़ी’ में वो ताकत होती है, जिसके घुमाने से किसी इंसान के विचार को ही बदल दिया जाता है। राजा ने प्रजा की भावनाओं पर काबू रखने की लिए ही ‘परी के जादुई छड़ी' की तरह ‘मन की बात’ का ईजाद किया है। राजा को जब-जब लगता है कि प्रजा अपने जीवन की बात सुनाने वाली है, तभी वो अपने ‘मन की बात’ बताने लगते हैं। राजा से ‘मन की बात' सुनने के बाद प्रजा राजा के मोहपाश से बँध जाती है और अपने बर्बाद हो रहे जीवन के बारे में सोच ही नहीं पाती है।
                         इतना होने के बाद भी राजा को विश्वास नहीं था कि प्रजा उनकी बातों को मानती है। इस बात की परीक्षा लेने के लिए राजा ने प्रजा की उस संपत्ति को बेचने का निर्णय लिया, जो राजा के नियंत्रण में था। प्रयोग के तौर पर राजा ने प्रजा की संपत्ति को राज्य के व्यापारियों के हाथों बेचना शुरू किया। राजा के इस फैसले का प्रजा विरोध ना कर दे, इसलिए राजा को फिर से ‘मन की बात’ करनी पड़ी और यह बताना पड़ा कि राज्य की संपत्तियों को बेचने के बाद राज्य का विकास तीव्र गति से होगा। संपत्ति खरीद कर विकास करने की बात तो सदियों से की जाती रही है, लेकिन राज्य की संपत्ति को व्यापारियों के हाथों में बेचकर राज्य के विकास की बात करना, इस राज्य के लिए ही नहीं दुनिया-जहान के लिए भी आर्थिक जगत की एक नई अवधारणा थी। राजा को शायद यह पता नहीं था कि उसकी इस नई अवधारणा ने अर्थशास्त्र की कई प्रमाणिक अवधारणाओं को एक झटके में ही तोड़ दिया।
                              दरबारियों और मंत्रियों ने ‘प्रचार तंत्र’ के माध्यम से राजा को महामानव बनाने की भरपूर कोशिश की। राजा को जब इस बात की सूचना मिली कि वह अब केवल राज्य का राजा ही नहीं, बल्कि महामानव बन चुका है, तो उन्होंने दरबारियों से कहा कि हमें कैसे पता चलेगा कि हम महामानव बन चुके हैं। राजा सचमुच महामानव बन चुका है, यह साबित करना दरबारियों का काम था। दरबारियों ने राजा से कहा की महाराज आप सचमुच महामानव है। यदि आपको विश्वास नहीं हो रहा है, तो एक प्रयोग करके देख लीजिए। आप की दया दृष्टि जिस इंसान पर पड़ेगी, उसकी संपत्ति में लाख गुना ज्यादा वृद्धि हो जाएगी । राजा का हुक्म हुआ कि अपनी प्रजा में से किसी गरीब प्रजा को हमारे सामने पेश किया जाए, ताकि हम अपनी महा मानवता को साबित कर सकें। तभी राजा के सबसे वफादार और चतुर मंत्री ने राजा को सलाह दी कि यदि सामान्य प्रजा में से किसी पर आप की दया दृष्टि पड़ेगी, तब ऐसी स्थिति में उस प्रजा को तो लाभ हो जाएगा, लेकिन इससे आपको क्या लाभ होगा? राजा ने कहा तुम बात तो सही कह रहे हो, लेकिन किसी ना किसी इंसान पर यह प्रयोग तो करना ही पड़ेगा। मंत्री ने चतुराई के साथ कहा कि महाराज आप अपनी दया दृष्टि मेरे पुत्र पर डालिए। इससे आपको दो फायदा होगा। पहला फायदा यह होगा कि आपको महामानव होने का प्रमाण मिल जाएगा और दूसरा फायदा यह होगा कि एक ऐसा व्यक्ति आप की दया दृष्टि को पाकर धनवान बन जाएगा, जिससे आगे चलकर आपको ही फायदा होगा। अब उस चतुर मंत्री के पुत्र पर राजा की दया दृष्टि पड़ती है और सचमुच मंत्री का वह पुत्र कुछ ही समय में अपार धन-संपदा का मालिक हो जाता है। एकाएक मंत्री का पुत्र राज्य का बहुत बड़ा व्यापारी बन जाता है। इस चमत्कारिक घटना के बाद राजा को यह विश्वास हो जाता है कि वह सचमुच महामानव हो गया है। ‘मनतंत्र’ को मजबूती प्रदान करने के लिए एक नए तंत्र ‘व्यापार तंत्र’ को एक नए रूप में स्थापित की गई। प्राचीन काल से ही सभी राज्यों में व्यापार होता रहा है और व्यापारी भी होते रहे है, जिसका काम केवल व्यापार-व्यवसाय करना था, लेकिन उस समय व्यापारियों का ना कोई तंत्र था और ना ही व्यापार के अलावा व्यापारी किसी और चीज में रुचि लेते थे। आधुनिक युग में स्थापित इस ‘व्यापार तंत्र' में केवल व्यापार ही नहीं किया जाता है, बल्कि व्यापारिक मुनाफे के हिसाब से राजा को सलाह दी जाती है और राजा उस सलाह के हिसाब से अपना राज-काज चलाते हैं।
                              मंत्रियों और दरबारियों की नजर में तो राजा महामानव बन चुका है, लेकिन राजा के निजी गुप्तचरों ने राजा को यह सूचना दी है कि जनता अभी भी उसे राजा ही मानती है, महामानव नहीं मानती है, क्योंकि दरबारी और मंत्री एक-एक प्रजा के पास जाकर राजा के महामानव वाले गुण के बारे में नहीं बता सकते हैं। राजा ने जब इस विषय पर गहन मंथन करते हुए कहा कि ऐसा कौन सा उपाय किया जाए, जिससे कि प्रजा भी उसे राजा की बजाय महामानव समझे। सलाहकारों ने राजा को सलाह दी कि महाराज! यदि कोई ऐसा उपाय किया जाए, जिससे कि राज्य का ‘सूचना तंत्र', ‘प्रचार तंत्र' के रूप में कार्य करें, तब आपके महामानव की छवि को बड़ी आसानी से प्रजा के बीच प्रस्तुत किया जा सकता है। राजा ने कहा की ‘सूचना तंत्र’ हमारे लिए ‘प्रचार तंत्र’ की तरह कार्य क्यों करेगा? क्या यह संभव है? सलाहकारों में कहा-महाराज यह संभव है? यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं इसका एक उपाय बताता हूं। राजा ने कहा क्या उपाय है? सलाहकार ने कहा-महाराज आप की दया दृष्टि से आज तक जितने भी लोगों ने अपार संपत्ति जमा कर ली है, उस संपत्ति का कुछ हिस्सा लेकर ‘सूचना तंत्र' को अपने काबू में रखा जा सकता है और इसे ‘प्रचार तंत्र' का माध्यम भी बड़ी आसानी से बनाया जा सकता है। राजा ने अपने सलाहकारों को हुक्म दिया कि राजा की दया दृष्टि के कारण बने ‘नए धनवानों' को यह सूचना भेज दी जाए कि वह अपनी संपत्ति में से कुछ हिस्से से ‘सूचना तंत्र’ को काबू में करके उसका प्रयोग हमारे हित में 'प्रचार तंत्र' के रूप में करे। ऐसा ही किया गया। धीरे-धीरे राज्य के अधिकांश ‘सूचना तंत्र’, ‘प्रचार तंत्र’ के रूप में परिवर्तित हो गया और प्रजा के बीच जाकर राजा की महामानव वाली छवि को महिमामंडित करने लगे। राजा के खान-पान, रहन-सहन, पहनावे-ओढावे, चाल-चलन को ‘प्रचार तंत्र’ ने प्रजा के सामने इस तरह प्रचारित किया कि राजा सचमुच महामानव बन गया। प्रजा का क्या है? प्रजा तो बेचारी होती है, उसे तो जो दिखाया जाता है, वही देखती है, जो सुनाया जाता है, वही सुनती है और उसे ही सच मान लेती है। आखिर ऐसा हो भी क्यों नहीं, क्योंकि जनता के पास सोचने की शक्ति ही नहीं है। यहां सवाल यह है कि प्रजा सोचे भी तो कैसे? उसे सोचने का समय कहां मिल पाता है? प्रजा राजा के बारे में कुछ भी ना सोचे इसलिए प्रजा को मिलने वाली शिक्षा व्यवस्था को ही बर्बाद कर दिया गया है। क्योंकि राजा जानते हैं कि यदि प्रजा शिक्षित हो गई, तो वह अपने अधिकारों को जानने लगेगी और राज्य में विद्रोह की संभावना बढ़ जाएगी। राजा के द्वारा प्रजा की गरीबी-बेकारी को इसलिए दूर नहीं किया जाता है, क्योंकि प्रजा दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने में ही अपना जीवन गुजार दें और राजा की नाकामियों के बारे में न सोचे और उनकी नाकामियों का विरोध ना करें। इस प्रकार ‘मनतंत्र’ को विकसित करने में ‘प्रचार तंत्र’ की भूमिका भी धीरे-धीरे अहम हो गई।
                              अब तक राजा व्यापारियों के महत्व को समझ गया था, इसलिए राजा ने किसानों के ही देश में किसानों के विकास को वरीयता देने की बजाय, व्यापारियों के विकास को वरीयता दी गई। राजा की गलत नीतियों के कारण इस राज्य में किसान के खेतों से व्यापारी जितनी कीमत पर अनाज खरीदते हैं, उससे दोगुनी-तिगुनी कीमत पर फिर उसी अनाज को राज्य की प्रजा, जिसमें किसान भी शामिल है, को बेच देते है। व्यापारियों से राज्य को अधिक मुनाफा हो रहा है अथवा यूं कहिए कि राजा को अधिक मुनाफा हो रहा है, इसीलिए राजा के द्वारा राज्य के व्यापारियों को बहुत अधिक छूट दी गई है। उधर जब राज्य के व्यापारियों को यह लगने लगता है कि राजा की निर्भरता उस पर बहुत अधिक हो गई है, तब वह परोक्ष रूप से अपने हित में कानून बनाने के लिए राजा पर दबाव बनाता है और राजकाज में भी हस्तक्षेप करने की कोशिश करता है।
                            राजा ने सब कुछ त्याग कर तथा कई वर्षों तक घोर तपस्या करने के पश्चात राजगद्दी हासिल की है। वह भारतीय दर्शन में सबसे ज्यादा चार्वाक के दर्शन को पसंद करता है, जिसमें कहा गया है कि ‘जब तक जियो सुख से जियो और कर्ज लेकर घी पियो’। इसीलिए राजा सुख की तलाश में अपने पुष्पक विमान से पूरी दुनिया का भ्रमण कर लेता है। दुनिया का कोई ऐसा राज्य नहीं बचता है, जहां राजा ना गया हो। घोर तपस्या के दौरान इतने लंबे समय तक उन्होंने जितना दुख भोगा है, वह राज सिंहासन प्राप्त करने के पश्चात उस दुख से कई गुना अधिक सुख भोग लेना चाहता है, लेकिन राजा को यह लगता है कि वह प्रजा के पैसे से जो सुख भोग रही हैं, उससे कहीं प्रजा के बीच राजा के खिलाफ कोई गलत संदेश ना चला जाए, इसलिए राजा दुनिया का भ्रमण करने के दौरान ही बीच-बीच में समय निकालकर अपने राज्य में प्रजा के लिए ‘मन की बात' भी कर लेता है। ‘मन की बात’ कर प्रजा को यह समझाने की कोशिश की जाती है कि वह विदेशी राज्यों में भ्रमण के लिए नहीं जाता है, बल्कि उन राज्यों से मजबूत संबंध बनाने के लिए जाता है, ताकि वहां के व्यापारी अपने राज्य में आकर व्यापार करें और उद्योग धंधा स्थापित करें। ऐसा होने पर अपने राज्य के नागरिकों को रोजगार मिलेगा और प्रजा की गरीबी दूर होगी। जब दुख के दिनों में कोई किसी को सुख के सपने दिखाने लगता है, तब उस दुखी व्यक्ति को सुख मिले ना मिले, लेकिन सुख की कल्पना से ही उस दुखी व्यक्ति की आत्मा तृप्त हो जाती है। इस राज्य की प्रजा भी उसी दुखी व्यक्ति की तरह है, जो राजा के द्वारा सुख के सपने दिखाए जाने से ही इतना खुश हो जाती है कि हकीकत तत्काल उनकी आंखों से ओझल हो जाता है।
                              राज्य में सब कुछ पूर्ववत चल रहा था। राजा अधिकारी मंत्री व्यापारी सभी शानो शौकत से जीवन व्यतीत कर रहे थे। जनता अपनी बेबसी और लाचारी में किसी तरह जिंदगी जी रही थी, तभी अचानक दुनिया में एक भयंकर महामारी ने दस्तक दी। क्या राजा? क्या प्रजा? सभी उसकी चपेट में आने लगे। लोगों की तीव्र आवाजाही से ही इस महामारी ने बड़ी तीव्रता के साथ दुनिया के सभी राज्यों को अपनी चपेट में ले लिया। दुनिया के लगभग सभी राज्यों ने दूसरे राज्यों से अपने राज्य में लोगों की आवाजाही पर रोक लगा दी, लेकिन ‘मनतंत्र' का राजा तो महामानव था, उसने लोगों की आवाजाही पर तत्काल रोक नहीं लगाई, क्योंकि उसे अपने एक मित्र राजा की आवभगत करनी थी और लोगों से उनकी जय-जयकार करवानी थी, इसीलिए राजा ने लोगों की आवाजाही को बंद नहीं करवाया। राजा के इस गलत फैसले का परिणाम इतना विनाशक हुआ कि राज्य की प्रजा अनायास ही काल के गाल में समाने लगी।अब राजा ने एकाएक बिना सोचे- समझे ही राज्य के लोगों की आवाजाही पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन फिर भी महामारी को काबू में करना मुश्किल हो रहा था। राजा को यह पता था कि राज्य में महामारी उनकी गलती के कारण ही फैला है, लेकिन इस बात की भनक कहीं प्रजा को लग गई, तब क्या होगा? यही सोच कर राजा ने ‘प्रचार तंत्र' को यह हुक्म दिया कि चाहे जैसे भी हो इस महामारी के फैलने का दोष विरोधियों के मत्थे मढ़ देना है। ‘प्रचार तंत्र' ने झूठी अफवाह के द्वारा राजा को निर्दोष साबित करने की कोशिश की तथा महामारी का दोष विरोधियों पर डालने की भरपूर कोशिश की, राजा से अपने अधिकारों की मांग करने वाले किसानों पर महामारी को फैलाने का आरोप लगाया गया। ‘प्रचार तंत्र' के द्वारा राजा के विरोधी गुट में शामिल एक समुदाय को भी महामारी फैलाने कादोषी बनाने की भरपूर कोशिश की गई। यदि कुछ समय के पश्चात भी यह महामारी थम जाती, तो शायद राजा की चाल कामयाब हो जाती, लेकिन इस महामारी की कोई औषधि ना होने के कारण इसका प्रभाव कम होते-होते लगभग कई महीना गुजर गया।
                    देश दुनिया के चिकित्सकों ने मिलकर महामारी के प्रभाव को कम करने वाली औषधि तो बना दी, लेकिन राज्य की कुछ एक प्रजा के पास ही औषधि उपलब्ध कराई ही गई थी कि महामारी ने नए रूप में राज्य की प्रजा को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया। राजा बेहद चिंतित हो गया कि अब क्या किया जाए? अब प्रजा उनकी बातों पर विश्वास नहीं करेगी, क्योंकि पिछले साल महामारी के दौरान तो कई झूठ और अफवाह के सहारे प्रजा को शांत किया गया था। राजा के साथ सबसे बड़ी समस्या यह थी कि अपनी छवि सुधारने के लिए झूठ का सारा पिटारा तो पिछली महामारी के दौरान ही खोल दिया गया था, कुछ झूठ को संभाल कर रखा होता, तो शायद इस साल वह झूठ काम आ जाता, लेकिन अब किया ही क्या जा सकता है? जो हो गया, सो हो गया। अब राजा को यह समझ नहीं आ रहा है कि प्रजा के सामने अब क्या कहें? ‘मन की बात’ भी इस महामारी के दौरान कारगर साबित नहीं हो रही है।
                        राजा के शुभचिंतकों ने उसे इस भीषण परिस्थितियों से निपटने के लिए एक मंत्र दिया, वह मंत्र था-‘अश्रुमंत्र'। इस मंत्र का प्रयोग तत्काल सहानुभूति प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इस मंत्र के प्रयोग का तरीका यह है कि इसमें कोई व्यक्ति, लोगों के समुह के सामने खुद को बेबस और लाचार बता कर अश्रु बहता है और सामने वाले की सहानुभूति प्राप्त करता है। इसका प्रभाव सीधे लोगों के मन पर पड़ता है। ‘मनतंत्र’ के राजा ने सारे ‘प्रचार तंत्र' को बुलाकर उसके सामने ‘अश्रुमंत्र’ का सधा हुआ प्रयोग किया। राजा ‘प्रचार तंत्र’ के माध्यम से प्रजा के सामने आए, और आंसू बहाते हुए प्रजा को संबोधित किया। राजा की आंखों से एक बूंद आंसू क्या गिरा, राजा के प्रति प्रजा का गुस्सा उसी अश्रु धारा में बह गया। अब यदि प्रजा के मन में कुछ था, तो वह था- राजा के प्रति अपार स्नेह। प्रजा राजा की बेबसी को देखकर चुप हो गई और ऐसा चुप हुई कि चुप ही होकर रह गई है अबतक......

डॉ रोशन रवि,

विभागाध्यक्ष हिंदी विभाग, के.डी.एस. कॉलेज, गोगरी, मुंगेर विश्वविद्यालय, मुंगेर।




टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छा है सर 👌👌👌👌👌

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  2. वाह!बहुत सुन्दर !
    जनतंत्र में जनता की जागरुकता शासकों की मनमानी पर अंकुश लगा सकता है।शासकों के इशारे पर यदि जनता का ही एक समूह अपहरण,हत्या,दमन का साथी बन जाए तो बाँकी बचे लोग त्राहिमाम् करेंगे ही।ऐसे में लोकतंत्र की हत्या होगी...राजशाही बारबार कायम होगा। लूट-खसोट कर सात पुश्तों तक के लिए जमाखोरी की प्रवृति जनमानस से भी गायब नहीं हुई है। राजा हो या प्रजा--दोंनो की सार्थकता इसी में है--
    औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ।
    अपने सुख को विस्तृत कर लो,सबको सुखी बनाओ।

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    1. जीवन की सार्थकता भी इसी में है- “सबको सुखी बनाओ”

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